भारत में अलाउद्दीन खिलजी का समय भारत के कई राजे रजवाड़ों के लिए मुश्किल की घड़ी रही थी। जब हम अलाउद्दीन खिलजी के साम्राज्यवादी नीतियों की बात करते हैं तो कई युद्धों का जिक्र आता है, जिसके आधार पर उत्तर भारत में इस्लामिक सल्तनत की नींव रखी गई और मजबूत होती गई। तलवार, छल और कूटनीति के दम पर कई राज्यों का विलय हुआ। कई राजा मौत के घाट उतार दिए गए और लाखों सैनिक गिद्धों के शिकार हुए हैं।
पहले आपने अलाउद्दीन खिलजी के गुजरात अभियान, चित्तौड़ विजय और रणथंभोर विजय के बारे में पढ़ा है। उसकी अगली कड़ी में आज हम आपको मालवा विजय के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि ऐसी भीषण लड़ाई, ऐसा भीषण रक्तपात उस समय के इतिहास तक में पहली बार देखा गया, जहां अलाउद्दीन खिलजी के महज 10 हजार की सेना ने 1,00,000 से ज्यादा परमार सेना को धूल चटा दी। आइए जानते हैं मालवा के युद्ध की वजह और उसकी पूरी कहानी....
मुख्य बिंदु-
परमार साम्राज्य मध्य भारत के बीच स्थित एक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण साम्राज्य माना जाता था। यहां परमार वंश का शासन था और जिस वक्त अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण की योजना बनाई उस वक्त महालक देव परमार वंश का राजा हुआ करता था। इतिहासकार बताते हैं कि वह बेहद कमजोर राजा था, जिससे राज्य नहीं संभाला जा रहा था । परमार वंश के शासक हालांकि काफी वीर और महान क्षत्रिय हुए हैं, लेकिन दुर्भाग्य से मालवा के विनाश के वक्त इस राज्य को एक दुर्बल शासक नसीब था। इतिहासकार यह भी बताते हैं कि परमार साम्राज्य के राजा महालक देव का मंत्री कोका प्रधान हुआ करता था जो बेहद वीर और युद्ध रणनीतिकार था। कोका प्रधान का असली नाम हरनंद था।
मालवा पर चढ़ाई-
गुजरात जीतने के बाद सन 1305 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा फतह के लिए आइन अल मुल्क मुल्तानी को सेना की एक मजबूत टुकड़ी के साथ रवाना किया। कहा जाता है की 10,000 सेनाओं से सुसज्जित इस टुकड़ी के एक-एक सैनिक को मालवा फतह के लिए ही प्रशिक्षित किया गया था । अलादीन खिलजी के साम्राज्यवादी नीतियों को बढ़ाने के लिए सेना की 10,000 संख्या वाली टुकड़ी मालवा विजय के लिए कूच कर चुकी थी। मालवा के राजा महालक देव के मंत्री हरनंद उर्फ कोका प्रधान की सेना में 30 से 40,000 घुड़सवार और लगभग एक लाख से ज्यादा पैदल सैनिक हुआ करते थे। इतनी बड़ी सेना लेकर वह खिलजी की सेना से मुकाबला करने को तैयार थे।
मालवा के समीप खिलजी की सेना पहुंचती है और किले को घेर लेती है। भीषण युद्ध होता है खून की नदियां बहाई जाती हैं। मिट्टी लाल हो जाती है और आसमान में गिद्ध मंडराने लगते हैं। अलाउद्दीन खिलजी की कुशल प्रशिक्षित सेना अपने युद्ध नीति और अपने तकनीकी वजह से परमार राज्य के लाखों की सेना पर भारी पड़ती है। ऐसा माना जाता है और इतिहासकार भी ऐसा बताते हैं कि युद्ध के दौरान कोका प्रधान का घोड़ा दलदल में फंस जाता है और इसका फायदा उठाकर आइन अल मुल्क मुल्तानी की सेना उसे वही तीरों से छलनी कर देती है। कोका प्रधान युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त होता है और मुल्तानी की सेना मालवा के किले पर चढ़ाई कर देती है। युद्ध में पराजय देखते हुए महालक देव अपने प्राणों की रक्षा के लिए वहां से भागकर मांडू के किले में शरण लेते हैं।
दिल्ली में जश्न-
अलाउद्दीन खिलजी आइन अल मुल्क की इस ऐतिहासिक फ़तेह से बेहद खुश होता है और उसे मालवा का गवर्नर नियुक्त करता है। मुल्क मुल्तानी आगे बढ़ते हुए परमार की पूर्व राजधानी धार पर हमला बोलते हुए उज्जैन,धारा नगरी और चंदेरी को भी जीत लेता है। इन सभी राज्यों के किसानों को, जागीरदारों को जबरन खिलजी का आधिपत्य स्वीकार करने को बाध्य किया जाता है। जो लोग नहीं मानते हैं, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जब जीत की सूचना दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी को दी गई थी तब दिल्ली में 1 हफ्ते तक जश्न का माहौल था। राज्य में मिठाइयां बांटी गई थी और उसे पूरी तरह से सजा दिया गया था। परमार साम्राज्य और मालवा पर जीत के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
महालक वध और मालवा फतह-
लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी। परमार साम्राज्य का राजा महालक देव अभी भी जिंदा था और वह जिंदा था तो मांडू किले के संरक्षण में। जब तक युद्ध में राजा शिकस्त ना खाए तब तक राज्य की विजय को पूर्ण नहीं समझा जा सकता। शायद यही वजह थी आइन अल मुल्क मुल्तानी ने मांडू पर चढ़ाई कर दी। महालक देव ने मुल्क मुल्तानी किस सेना को जवाब देने के लिए अपने पुत्र को सेना की टुकड़ी के साथ भेजा। लेकिन अफसोस, उसका पुत्र युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुआ। हालांकि मांडू का किला बेहद सुरक्षित और अभेद्य माना जाता है, लेकिन एक बार फिर परमार वंश को भी गद्दारी और विश्वासघात का सामना करना पड़ा। किले के किसी पहरेदार ने धोखा दिया और उसने आईन अल मुल्क की सेना को किले में प्रवेश का गुप्त रास्ता बता दिया। रात के अंधेरे में आइन अल मुल्क की सेना किले के अंदर प्रवेश कर गई और देखते ही देखते परमार शासक महालक देव बंदी बनाकर मार दिए गए।
23 नवंबर 1305 मालवा शासक महालक देव का वध हुआ और खिलजी की सेना आइन अल मुल्क मुल्तानी के नेतृत्व में मालवा पर फतह हासिल करने में सफल हुई हालांकि उसके बाद भी परमार साम्राज्य पूरी तरह से विनष्ट नहीं हुआ और उनका शासन 1310 ईसवी तक मध्य प्रदेश, राजस्थान के कुछ हिस्सों में देखा गया, छोटे-छोटे राज्यों कबीलों या फिर ग्राम के तौर पर। इस तरह से अलाउद्दीन खिलजी की साम्राज्यवादी नीतियां उत्तर भारत में पांव पसारती चली गई और इस्लामिक सत्ता का शासन अपनी नींव मजबूत करता चला गया ।
Published By
Prakash Chandra
30-01-2021
Frequently Asked Questions:-
1. मालवा का युद्ध कब हुआ था ?
सन् 1305 ईस्वी
2. मालवा का युद्ध किनके बीच हुआ था ?
महालक देव और अलाउद्दीन खिलजी
3. मालवा के युद्ध का परिणाम ?
अलाउद्दीन खिलजी का मालवा फतह