युद्ध, रक्तपात, विजय पराजय... ये सब इतिहास लिखने मिटाने के कारक रहें हैं । कभी भी कोई बड़ा इतिहास बिना किसी बड़े बलिदान के नही बना । भारत की प्राचीन कहानियों में ऐसे कई युद्ध, ऐसी कई लड़ाइयाँ है ना सिर्फ वक़्त को मोड़ती हुई दिखाई देती है बल्कि आज के भारत की सामरिक और सांस्कृतिक महत्वों को भी जड़े देती हैं । प्राचीन राजतंत्रों की लड़ाइयों से बाहर निकलते ही भारत की अथाह धन सम्पदा पर विदेशियों की नजर पड़ जाती है और फिर शुरू होती है वीरता और वजूद के लड़ाई की गाथाएँ । अफगान आक्रमण के साथ ही भारत में तुर्क साम्राज्य का प्रवेश होता है और चंदावर की लड़ाई में जयचंद की पराजय के बाद तुर्क साम्राज्य की नींव पड़ जाती है । भारत की कहानियों में आज आपको तराइन की लड़ाई के बाद उजड़ चुके हिंदुस्तान के उस रणक्षेत्र में लेकर चलेंगे जहां एक तरफ जयचंद की विशाल सेना है, वो वही दूसरी तरफ मोहम्मद गौरी का आतंक । शुरू होने वाला है..... चंदावर का युद्ध, 1194
मुख्य बिन्दु -
तराइन के युद्ध के बाद कन्नौज के राजा जयचंद पर एक बड़ा दाग लगा....गद्दारी का । आम जन लोकोक्ति हो गयी, जिसमें जयचंद गद्दारी का पर्याय हो गया । कारण क्या था ? तो कारण बड़ा ही स्वाभाविक था। पारिवारिक द्वेष में गौरी के आगे अकेले लड़ रहे पृथ्वीराज चौहान के साथ ना खड़े होना । महत्वपूर्ण साक्ष्य ये कहते है कि जयचंद से पृथ्वीराज चौहान ने किसी भी तरह की मदद नहीं मांगी, इसलिए राजा जयचंद तटस्थ हो गए । नतीजा ये हुआ कि गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को छल से हरा दिया । लेकिन कुछ कहानिया आज भी जयचंद के गद्दारी को जिंदा रखती हैं । कहानियों की माने तो गौरी के खिलाफ पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की सेना संयुक्त रूप से लड़ने आई थी लेकिन युद्ध में कुछ अफवाह फैली की जयचंद गौरी से मिल गया है और उसी ने युद्ध के लिए गौरी को निमंत्रण भी दिया है । फिर क्या था, युद्ध का माहौल ही बदल गया । यमुना नदी के किनारे हुए भीषण युद्ध में दो भारतीय राजपूत राजाओं के सैनिक आपस में ही लड़ मरे । पृथ्वीराज को बंदी बना लिया गया । बाद में उनकी मृत्यु हुई ।
आखिर हुआ क्या ?
इस कहानी से संबन्धित सत्य को ना तो शत प्रतिशत सही माना जा सकता ना असत्य को नकारा ही जा सकता । मतलब ये कि पृथ्वीराज को हराने के बाद मोहम्मद गौरी द्वारा जयचंद के राज्य कन्नौज पर हमला ना करना और वापस लौट जाना, बेहद गंभीर शक छोड़ जाता है । लेकिन लूटेरे की नीयत और लूटेरे का खजाना ज्यादा दिन भूखे नहीं रहता । उत्तर भारत में बच गए एकलौते सबसे शक्तिशाली राज्य कन्नौज की लगातार बढ़ती सम्पदा पर भी गौरी कि नजर पड़ी । 2 साल के बाद गौरी फिर लौट कर आया और इस बाद क़ुतुबबुद्दीन के साथ मिलकर जयचंद के खिलाफ षड्यंत्र करने लगा । 1194 ई॰ में वो वक़्त आ गया जब इस बार कन्नौज अकेला था और बेबस थे जयचंद । हालांकि बेहद विशाल सेना थी जयचंद के पास, लेकिन गौरी के तेज निशानेबाज़ों के आगे जयचंद ज्यादा दिन सुरक्षित ना रह सकें । एक तीर उनके कपाल को भेदता हुआ निकल गया । शव वहीं रणभूमि पे गिर पड़ा और उठ खड़ा हुआ तुर्क साम्राज्य का परचम, जिसके तले अलग अलग शासकों ने तकरीबन 500 साल तक राज किया ।
कहा जाता है कि कन्नौज बेहद शक्तिशाली राज्य था और मुस्लिम राज्यों के विकास में एक बड़ा बाधक भी । इसी दृष्टि से गौरी ने वापस लौट कर कन्नौज पर आक्रमण किया । चंदावर की लड़ाई के बाद भारत में तुर्क के कठोर आक्रमण को रोकने वाला कोई मजबूत शासक न हुआ । तुर्क साम्राज्य फैला और आगे भी मोहम्मद गौरी की लूटपाट जारी रही । चंदावर की लड़ाई के बाद वो बनारस पहुंचा और वहाँ के सांस्कृतिक धरहरों को तहस नहस किया। कई सांस्कृतिक स्थलों और मंदिरों को तोड़ दिया गया और उसके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया । पुजारियों की हत्या हुई और जबरन धर्मांतरण करने को विवश किया गया । प्राचीन भारत की यही निर्मम घटनाएँ आधुनिक भारत में नफरत की जड़े आज ही सींच रही है, जिसका कोई समुचित समाधान नजर नहीं आ रहा । जयचंद की मौत के बाद भारत की सम्पदा से अपनी प्यास पूरी कर सुल्तान गौरी तुर्की वापस लौट गया और उसने जीते हुए सारे राज्य अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दिया। उसके बाद हिंदुस्तान में गुलाम वंश का शासन शुरू हुआ ।
Published By
Prakash Chandra
23-01-2021
Frequently Asked Questions:-
1. चंदावर का युद्ध कब हुआ था ?
1194 ई॰
2. चंदावर का युद्ध किनके बीच हुआ था ?
मोहम्मद गौरी और क़ुतुबुद्दीन ऐबक की संयुक्त सेना और जयचंद
3. चंदावर का युद्ध कहाँ हुआ था ?
उत्तरप्रदेश ईटावा जिला, वर्तमान फ़िरोजाबाद
4. चंदावर के युद्ध का परिणाम ?
जयचंद की पराजय, तुर्क साम्राज्य की नींव