अमृतसर का युद्ध

अमृतसर का युद्ध
अमृतसर का युद्ध

कहा जाता है कि भारत में मुगल अविजित थे, लेकिन इतिहास के कई ऐसे युद्ध हैं जिन्होंने यह साबित किया है कि मुगलों का हारना और जीतना भी वैसा ही था जैसे सिक्के के दो पहलू । महाराणा प्रताप ने मुगलों को धूल चटाई थी। वही कई राजस्थानी राजाओं ने भी मुगलों के दांत खट्टे किये थे। 'कहानी भारत की' की के इस अंक में हम उस युद्ध का जिक्र करने वाले हैं, जो ना सिर्फ मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना, बल्कि लोगों में हिम्मत दे गया कि जो मुगल साम्राज्य है, वह कोई महाकाल नही, जिसे हराना संभव नहीं हो। इस युध्द का नाम है अमृतसर का युद्ध।

आत्मरक्षा में बनाया गया खालसा पंथ

अमृतसर का युद्ध सिक्ख जैसे शांतिप्रिय कॉम और मुगलों की आक्रामक सेना के बीच हुआ था। वैसे सिक्ख धर्म काफी शांतिप्रिय धर्म माना जाता है, लेकिन बादशाह अकबर के दौर के अंतिम समय तक यह स्पष्ट हो गया कि मुगल सिक्खों पर हावी होने की योजना बना रहे हैं, और आज न कल उनपे हमला होगा जरूर।  धर्मप्रचार के लिए मुगल किसी भी हद तक गिर जाने को तैयार होते थे। सिख अपने धर्म के प्रति बहुत ही संवेदनशील कहे जाते हैं। सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव को इस बात का एहसास हो गया था कि सिर्फ शांति के मार्ग पर चलकर अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं की जा सकती। मुगलों के बढ़ते आतंक ने सिखों के पांचवें गुरु अर्जन सिंह को भी मार दिया था। कारण- इस्लाम स्वीकार न करना। यही कारण था कि खालसा पंथ की नींव रखी गयी।

इसलिए सिखों के छठे गुरु और अर्जुन देव के अनुयाई गुर हरगोविंद सिंह ने आत्मरक्षा में अपनी सेना निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। दुनिया के सबसे शांतिप्रिय धर्म ने हिंसा से खुद को बचाने के लिए एक संतों की सेना बना डाली थी, जो तलवार की धार पर भी उतनी ही तत्पर थी, जितनी सेवा भाव में।



अमृतसर युद्ध की पृष्ठभूमि कैसे हुई तैयार

शाहजहां का शासन था और सिखों के दमन की योजना बनायी जा चुकी थी। बस इन्तेजार था तो मौके का। वो भी आ गया । साल 1634, अप्रैल के महीने और वैशाखी का त्योहार।  वैशाखी का दिन था और वैशाखी के त्यौहार के दिन बाज उड़ाने की परंपरा थी। सिख अपने बाज उड़ा रहें थे और मुगल भी अपने बाज उड़ा रहे थे। कहा जाता है कि जाने-अनजाने में सिखों ने चुटकी लेने के लिए मुगलों के एक बाज को मार दिया। मुगलों को यह बात पता चली, अपने सैनिक घुड़सवारों के साथ और सिखों के क्षेत्र में आए और उन्होंने सिखों के कबीलों में जाकर उन्हें गंदी और भद्दी गालियां दी। इस अभद्रता से सिखों का खून एक बार फिर उनके पग पर तिलक की तरह चढ़ गया। उन्होंने मुगल सैनिकों को उल्टे पांव वहां से खदेड़ दिया। फिर क्या था, जिस मौके का इंतजार था वह आ गया। मुगल सल्तनत को सिख समुदाय पर आक्रमण करने का एक बहाना मिल गया था।



मुखलिश खां के नेतृत्व में हारी मुग़ल सेना

मुगल दरबार की तरफ से मुखलिस खान अपने सात हजार सेनाओं के साथ अमृतसर की तरफ बढ़ा। मुगल की सेना हमला कर देगी,  इस बात का अंदाजा सिखों को नहीं था। और दूसरी तरफ अमृतसर में गुरु हरगोविंद की बेटी की शादी की तैयारियां चल रही थी। गुप्तचरों ने आक्रमण के एक दिन पहले ही हरगोविंद सिंह को इस आक्रमण की सूचना दे दी और उन्हें आगाह कर दिया। समय की गंभीरता को समझते हुए सिखों ने फौरन शादी के ताम-झाम को समेटते हुए लड़ाई की तैयारियां शुरू की। सलाहकारों ने हरगोविंद सिंह को फिलहाल सुरक्षित स्थान पर जाने की सलाह दी। वो गुरु अर्जन सिंह का हश्र देख चुके थे, इसलिए सीधे तौर पर भिड़ना नहीं चाहते थे।  हरगोविंद सिंह वहां से बच कर दूसरे रास्ते से आगे बढ़ने लगे। मुगल आये, उन्होंने खूब लूटपाट किया । सारे नगर में उद्दंडता की हदें पार की, लेकिन सिर्फ संपदा का नुकसान कर सके। हरगोविंद सिंह के साथ उनकी मुलाकात दूसरे दिन हुई ।



हमेशा की तरह सिख फिर पड़े भारी

हाथ में नंगी तलवार लिये सिखों का एक दल मुग़लिया अहंकार को चुनौती देने के लिए सामने खड़ा था। उसके बाद तो नरसंहार शुरू हुआ। विश्व के सबसे शांतिप्रिय धर्म रक्षक अपने पहले की गुरुओं की भांति अपना रौद्र रूप धारण कर मुगलों की सेना पर टूट पड़ें। एक-एक कर मुगलों की गर्दन सर से उड़ाई जाने लगी। इस भीषण युद्ध में सिखों की छोटी सी सेना मुगलों के सात हजार की भारी सेना पर मौत बनकर बरसी। सिखों की तलवारें मुगलों की सेना को दो फाड़ करती हुई मुखलिश खान के सर को भी धर से उड़ा गयी। इस तरह मुगलों की सेना बुरी तरह से हार गयी।



अमृतसर युद्ध: मुगल सल्तनत के पतन की शुरुआत

अमृतसर का युद्ध मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना। पंजाब और उसके आसपास के पूरे क्षेत्र में यह बात फैल गई कि अपराजित कही जाने वाले मुगल को सिखों की छोटी सेना ने पराजित कर दिया। मुगलों से परेशान सभी समुदायों ने सिखों का साथ देना शुरू कर दिया। इस युद्ध के बाद सिखों ने अपने धर्म रक्षा और अपनी सेना के संगठन पर काम करना शुरू किया। आगे चलकर आत्मरक्षा में सिखों ने खालसा पंथ नाम से अपनी सेना बनायी। गुरु को आदर्श मानते हुए गुरु की रक्षा हेतु एक सेना का निर्माण किया और नारा दिया - "वाहे गुरु जी दा खालसा,  वाहे गुरु जी दी फ़तह।"

Published By
Prakash Chandra
03-03-2021

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