द्वारसमुद्र का युद्ध

द्वारसमुद्र का युद्ध
द्वारसमुद्र का युद्ध

भारत में इस्लाम विस्तार की लड़ाई को दिल्ली के रास्ते पनपता हुआ अगर किसी के राज्य में देखा गया तो वह था अलाउद्दीन खिलजी का राज्य। सिंहासन पर रहते अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य विस्तार की नई सीमाएं गढ़ी और समूचे उत्तर भारत के साथ दक्षिण भारत पर भी अपना साम्राज्य विस्तार किया। कहानी भारत की के पिछले अध्याय में आप अलाउद्दीन खिलजी के गुजरात,देवगिरी और वारंगल पर विजय की कहानी पढ़ चुके हैं। काकातीय साम्राज्य को जीतने के बाद और वारंगल की धनसंपदा लूट लेने के बाद अलाउद्दीन का सशक्त सेनापति और विश्वासी मलिक कफूर वापस दिल्ली लौटता है और दक्षिण की धन संपदा और अथाह दौलत के बारे में उसे बताता है। इसके साथ ही वह आगे साम्राज्य विस्तार के नजरिए से बढ़ने का सुझाव भी देता है। इसी क्रम में मलिक कफूर अलाउद्दीन खिलजी से होयसल राजवंश की राजधानी द्वारसमुद्र पर आक्रमण करने का सुझाव देता है अलादीन खिलजी इस प्रस्ताव को अविलंब स्वीकार कर लेता है और मलिक काफूर की सेना कुछ महीनों के विश्राम के बाद पुनः दक्षिण में इस्लाम के प्रचार और साम्राज्य विस्तार को निकल पड़ती है।


इस्लाम और शरियत को फैलाने के उद्देश्य से निकली अलाउद्दीन खिलजी की सेना मलिक कपूर के नेतृत्व में लंबे सफर को नापते हुए दक्षिण के लिए कूच कर जाती है इस क्रम में कई जगहों पर सेना रूकती है और विश्राम भी करती है सेना का पहला पड़ाव यमुना नदी के किनारे टंकल नामक जगह पर होता है। उसके बाद कटिहन में सेना रूकती है। वहां से कूच करने के बाद नदियों, घाटियों, पहाड़ियों को पार करते हुए सेना नर्मदा नदी के तट पर पहुंचती है। कहा जाता है कि नर्मदा नदी दक्षिण का आरंभ विंदु है। नर्मदा नदी को पार करने के बाद 17 दिनों की यात्रा के बाद मलिक कफूर की सेना घरगांव नामक जगह पर पहुंचती है। वहां काकतीय साम्राज्य के शासक प्रतापरूद्र के द्वारा उनके रहने का प्रबंध करवाया जाता है। इतना ही नहीं काकतीय वंश के द्वारा उन्हें 23 हाथियों का एक जत्था भी सौंपा जाता है जिसकी उपयोगिता युद्ध में अहम होती है। वहां से निकलने के बाद मलिक कफूर की सेना ताप्ती नदी को पार कर यादवों की राजधानी देवगिरि पहुंचती है। देवगिरी को अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने पहले ही अपने साम्राज्य में मिला लिया था। देवगिरि के शासक रामचंद्र देव उत्साह के सा सेना का स्वागत करते हैं और सारे नगर को सजा दिया जाता है। कुछ दिन रुक कर, अपनी कमियों को और अपने भंडार वाहनों को पूरी तरह से भर लेने के बाद द्वारसमुद्र की तरफ अंतिम युद्ध के लिए प्रस्थान कर जाती है।



अगले 5 दिनों में गोदावरी नदी, सीना नदी और भीमा नदी को पार करके विहंगम रास्तों से होते हुए खिलजी की पूरी सेना पंढरपुर पहुंचती है और वहां डेरा डाल देती है। पंढरपुर में मलिक कफूर को कुछ मुखबिर द्वारा होयसल साम्राज्य के गुप्त सूचनाओं की जानकारी मिलती है, जो युद्ध के दौरान उन्हें विजयश्री हासिल करने में काफी मददगार साबित होती है। मलिक कफूर को बताया जाता है कि होयसल वंश के वीर और सुंदरा भाइयों के बीच काफी पुराना मतभेद चल रहा है जिसका फायदा उठा सकते हैं। वीर भल्लाल तृतीय का राजधानी द्वारसमुद्र में ना होना भी एक शुभ समाचार के तौर पर मलिक कफूर को प्राप्त होता है। होयसल साम्राज्य के चारों तरफ के छोटे-छोटे राज्यों को मलिक कफूर की सेना सबसे पहले जीत लेती है और द्वारसमुद्र जो कि होयसल राजवंश की राजधानी है, वह चारों तरफ से खिलजी द्वारा भेजी की सेना से घिर जाता है। वीर भल्लाल तृतीय को जब इस बात की सूचना मिलती है कि उसके राज्य पर आक्रमण होने वाला है तब वह अचानक भागा भागा वापस अपने राज्य पहुंचता है और सुरक्षा की तैयारियों में लग जाता है। हालांकि युद्ध लड़ने के लिए यह बहुत ही कम समय है तो इतने समय में इतनी बड़ी सेना के साथ लड़ाई करना बेहद बचकाना और और संवेदनशील फैसले की तरफ इशारा करता है। द्वारसमुद्र के बुद्धिजीवी और जानकार इस मामले में राजा वीर भल्लाल तृतीय को सलाह देते हैं कि राज्य समर्पित करने के बजाय युद्ध करना ज्यादा बेहतर विकल्प है। लेकिन वीर भल्लाल तृतीय प्रजा की सुरक्षा हेतु असमंजस की स्थिति में पड़े होते हैं।



26 फरवरी 13 11 ईसवी को मलिक कफूर अपनी विशाल सेना लेकर द्वारसमुद्र की चौखट पर आ धमकता है । दुश्मन सेना की सही जानकारी लेने के लिए राजा वीर भल्लाल तृतीय गेसूमल नामक गुप्तचर को दुश्मन की सेना में भेजता है। जहां से उसे बेहद अहम जानकारियां मिलती है। वह आकर बताता है कि मलिक कपूर की सेना वही सेना है जो दक्षिण में काकतीय साम्राज्य और यादवों के साम्राज्य को जीत चुकी है और आगे दक्षिण में साम्राज्य विस्तार करने निकली है। खिलजी की सेना की दमनकारी नीतियों को देखते हुए और प्रजा के जानमाल की सुरक्षा हेतु राजा वीर भल्लाल तृतीय आत्मसमर्पण करने का फैसला लेते हैं। अपने एक दूत बलकदेव नायक को खिलजी की छावनी में भेजकर संधि का प्रस्ताव रखा जाता है। साम्राज्य विस्तार को निकली खिलजी की सेना का नेतृत्व कर रहा मलिक कफूर संधि के प्रस्ताव के सामने दो शर्त रख देता हैं ।



पहली शर्त होती है कि होयसल राजवंश या तो इस्लाम कबूल करें या दिल्ली की सल्तनत को वार्षिक कर जिसे "जिम्मा" कहा जाता है, देना स्वीकार करें। दूसरी शर्त यह है कि अपनी सैन्य क्षमता और अपने राजस्व को तत्काल खिलजी साम्राज्य के अधीन सौंप दें। राजा वीर भल्लाल तृतीय अपने धार्मिक आस्थाओं को छोड़कर अन्य सभी शर्तों को मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस तरह से अपने धर्म का मान और अपने प्रजा की सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए वीर भल्लाल खिलजी की सेना के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं और आगे खिलजी वंश के साथ वफादार रहकर राज्य चलाने की संधि होती हैं। इसके बाद इस संधि को प्रमाणित करने के लिए वह खिलजी के दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के लिए पांडय वंश पर आक्रमण के लिए मदद भी करते हैं। जिससे खिलजी बहुत प्रसन्न होता है और उन्हें दस लाख सोने के मुहरों का इनाम और साम्राज्य मुकुट भी भेंट करता है। जिसकी छत्रछाया में वह होयसल पर शासन करते हैं। इस तरह से होयसल राजवंश का द्वारसमुद्र के युद्ध में दिल्ली सल्तनत में विलय हो जाता है। खिलजी की सेना पांडय वंश की तरफ साम्राज्य विस्तार को कूच कर जाती है ।

Published By
Prakash Chandra
03-02-2021

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