कहानी झाँसी की

कहानी झाँसी की
कहानी झाँसी की

इस कहानी की शुरुआत आज से लगभग 170 साल पहले हुयी, इतिहास में कई राजा महाराजा हुए जिनके नाम पर महल बने, स्तूप बने, और इसी तरह बहुत से राजाओ का नाम इतिहास में से विस्मृत हो गया, उनमे से एक झाँसी महल जिनका नाम इतिहास में अमर हुआ और उसी के साथ बुंदेलखंड में झाँसी के किले ने इतिहास को अमर कर दिया, झाँसी के किले जिसने अपने शौर्य और पराक्रम से दुश्मनो के दाँत खट्टे किये और बल्कि शौर्य से उन्हें खदेड़ा भी | आज की कहानी में झाँसी के किले के शौर्य को जिसने इतिहास के सुनहरे पन्नो में अपना नाम अंकित कर दिया, जिनकी वजह से आज झाँसी के शौर्य की गाथा है उनका नाम महारानी लक्ष्मीबाई है जिसने अंग्रेजो से लड़ते हुए अपने शौर्य का प्रदर्शन किया |

महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 November 1828 को वाराणसी जिले में मराठा ब्राह्मण परिवार में हुआ, बचपन से ही एक प्रतिभाशाली वीरांगना जिनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था जिन्हे मनु के नाम से भी जानते है, जिनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी बाई था, उनके शौर्य की गाथाये चारो दिशाओ में फैली हुयी थी पिता मोरोपंत ताम्बे बिठूर जिले में पेशवा बाजिराओ के कार्यकाल में पदस्थ थे पेशवा इन्हे छबीली के नाम से जानते है, इतिहास में महारानी लक्ष्मीबाई का नाम और उनका योगदान अमूल्य और विश्मर्णीय है

एक बार झाँसी किले के इतिहास की और नज़र दौड़ते है, इसकी शौर्य के इतिहास की ओर , इस किले के निर्माण कार्य की शुरुआत सन 1613 बुंदेला राजपूत और ओरछा के महाराजा वीर सिंह जी देव बुंदेला ने कराया, बुंदेलों ने अपने पराक्रम का परचम चारो तरफ फैला रखा था सन 1728 के समय में मुहम्मद खान बंगश ने महाराजा छत्रसाल पर आक्रमण किया था, पेशवा बाजिराओ ने मुग़ल सेना को हराने में सहायता की थी फलस्वरूप महाराजा छत्रसाल ने झाँसी के एक हिस्से को तोहफे के रूप में भेट दिया |

सन १७४२ में महाराजा पेशवा बाजिराओ ने नारोशंकर को झाँसी का सूबेदार बनाया, बाद में नारोशंकर ने झाँसी का विस्तार किया जिसे शंकरगढ़ के नाम से जानते है पेशवा ने 1757 में नारोशंकर को वापिस बुला लिया और माधव गोविन्द और बाबूलाल कनहै झाँसी के सूबेदार के तौर पर नियुक्त हुए, सन 1766 से सन 1769 तक विश्वास राओ लक्षमण झाँसी के सूबेदार के तौर पर नियुक्त रहे उनके पश्चात रघुनाथ राओ नेवालकर झाँसी के सूबेदार के पद पर नियुक्त हुए वे एक कुशल नीतिकार और शासक हुए

इसके पश्चात झाँसी के किले पर कोई उपयुक्त शासक न रहा शिव राओ की मृत्यु के पश्चात उनके वंशज उनके पोते रामचंद्र राओ को झाँसी का सूबेदार बनाया गया, रघुनाथ राओ की 1838 में मृत्यु होने के पश्चात गंगाधर राओ को झाँसी किले का राजा घोषित किया गया उनके राज्य से झाँसी की प्रजा बहुत खुश थी जो की उनके कुशल शासक होने का प्रमाण है ४ वर्षो के शासन के पश्चात सन 1842 में महाराज गंगाधर राओ ने मणिकर्णिका से विवाह की रस्म को निभाया विवाह के पश्चात इनका नाम महारानी लक्ष्मीबाई रखा गया |

कुछ समय बाद महारानी ने दामोदर राओ को जन्म दिया लेकिन इतिहास को कुछ और ही मंजूर था और कुछ ही घंटो में उनकी मृत्यु हो गई, महाराजा गंगाधर राओ की मृत्यु सन 1853 में होने से पहले आनंद राओ को ब्रिटिश राज्य के सामने आनंद राओ को झाँसी का राजा घोषित किया जिसे ब्रिटिश सरकार को उसी सम्मान के साथ मानने का आदेश जारी किया |

सन 1853 में महाराजा की मृत्यु के पश्चात आनंद राओ को ब्रिटिश सरकार जिसमे लार्ड डलहौज़ी की दत्तक पुत्र की नीति आयी जिसमे किसी भी राजा के दत्तक पुत्र होने पर उनका राज्य ब्रिटिश सरकार में शामिल कर लिया जायेगा, इसी नीति के तहत महारानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र आनंद राओ जिनका नाम बाद में दामोदर राओ रखा गया, ब्रिटिश सरकार ने उत्तराधिकार मानने से इंकार कर दिया और उन्हें सन 1854 में महल से जाने और करीब 60000 ₹ पेंशन के तौर पर देने को कहा |

लेकिन महारानी ने इसे मानने से इंकार कर दिया सन जून 1857 में महारानी ने विद्रोह कर दिया और झाँसी जिले को अपने कब्जे में ले लिया लेकिन जल्दी ही जनरल हूजे रोज और उसकी सेना ने सन 1858 में अपने कब्जे में ले लिया महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजो से लड़ते हुए अपने शौर्य के पराक्रम को दिखाते हुए अपने प्राणो को न्योछावर कर दिया, इस तरह एक पराक्रम और शौर्य की वीरता की गाथा बुंदेलखंड के इतिहास में हमेशा के लिए सुनहरे पन्नो में समां गयी |

इस कहानी के साथ हम राजाओ और रानिओ के शौर्य में महारानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की गाथा के बारे में जानेगे की किस तरह उन्होंने अंग्रेजो के दाँत खट्टे किये और उन्हें घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, आज की कहानी में शौर्य की गाथा यही तक |

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