इस कहानी की शुरुआत एक दिलचस्प कहानी की तरह है जहा एक तरफ प्रेम की ज्वाला तो दूसरी तरफ युद्ध का सफर, कहते है दोनों एक ही कहानी के पहलु है किसी एक तरफ की जीत | ऐसे ही एक कहानी है शनिवार वाडा की जो आज के पुणे शहर में है, यह कहानी आज से 290 साल पहले पेशवाओ से शुरू होती है आईये आपको ले चलते है पुणे की इस कहानी में जिसकी नींव पेशवा बाजिराओ प्रथम ने रखी वे महाराज छत्रपति शिवाजी के प्रधानपति थे, उन्होंने अपनी राजधानी सतारा से पुणे स्थापित की और इसकी नींव 10 जनवरी 1730 को रखी थी जो की तारिख शनिवार की थी इसलिए इसका नाम शनिवार वाडा रखा गया वाडा का अर्थ रहने के स्थान से सम्बोधित है, ये सात मंजिल शनिवार वाडा जिसकी कल्पना पूरे महल को संगमरमर से बनाने का निर्णय था लेकिन बाद में स्थानीय लोगो के शिकायत के बाद बाकि के बचे हुए किले का निर्माण ईटों से हुआ |
बाजिराओ प्रथम के जाने के बाद उनके पुत्र नानशाहेब जिनका दूसरा नाम बालाजी बाजीराव था उनका शाशन एक लम्बे समय तक जिसके शाशन की कार्यावधि 41 वर्ष थी, उनके शाशन के बाद उनके पुत्र माधव राव ने गद्दी संभाली लेकिन पानीपत के द्वितीय युद्ध में वो ना रहे उन्होंने पेशवाई के लिए बहुत से लोगो से लड़ाई लड़ी उनके चाचा राघो बा दादा भी उनके विरुद्ध राजनीती करते और शाशन को अपने हाथ में लेने की कोशिश करते |
इस महल ने अपने साथ बहुत से इतिहास के पन्नो को पिरो रखा है जिनमे से कहानी में 1773 में नारायण राव की हत्या जिसको उनके ही चाचा रघुनाथ राव और आनंदीबाई के आदेश पर उनके अंगरक्षक ने कर दी थी | इस किले की दीवारों की कहानियो में जिसने पेशवाओ के इतिहास को देखा उन्ही दीवारों ने पेशवाओ के प्यार को भी देखा जिसमे बाजिराओ और मस्तानी के अमर प्रेम की कहानी को भी शामिल है |
सन 1773 में नारायण राव की मृत्यु के बाद उनके पुत्र सवाई माधवराव जो शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम ना होने के कारण 21 वर्ष की उम्र में हज़ारी फव्ववारे में कूद गए जिसकी वजह से उन्हें बहुत चोट आयी और उनकी कई चोटों के कारण उनकी मृत्यु हो गयी, इसी शनिवार वाडा ने कभी पेशवाओ की खुशियों में चार चाँद लगाए और उन्ही में कुछ दर्द भरी कहानिया भी |
इन सब के बाद राघोबा दादा के पुत्र बाजिराओ द्वितीय, उन्होंने बाजिराओ प्रथम मराठा साम्राज्य की नींव रखने वाले के नाम के विपरीत कार्य किया, मराठा साम्राज्य ने उतना ही बुरा कार्यकाल देखा क्युकी बाजिराओ द्वितीय ने जून सन 1818 में अंग्रेज जॉन मालकम को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौप दिया और वे खुद बिठूर आज के कानपुर के निकट है |
अंग्रेजो के हमले और आग लगने की वजह से आज किले की सात मंजिलो में से एक ही मंजिल शेष रह गयी है जो की शायद ग्रेनाइट के पत्थरो की वजह से, और इस तरह से शनिवार वाडा जिसने भारत की कहानी में एक अनोखी बेमिसाल छाप छोड़ी |