श्री राम स्तुति

श्री राम स्तुति
श्री राम स्तुति

श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम् |
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कंजारुणं ||

कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम् |
पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम् ||

भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम् |
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम् ||

सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं |
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-दूषणं ||

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम् |
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम् ||

मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरों |
करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो ||

एही भांती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली |
तुलसी भवानी पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली ||

जानि गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि | मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे ||

मंत्र उत्पत्ति : इस कलिकाल में जब यज्ञ और तप से फल की प्राप्ति नहीं हो पाती, तब भगवान कहते है। अपने मन से भगवान का ध्यान करना सर्वोत्तम है। इसी मन से परोपकार की भावना जागृत होती है। जब द्वापरयुग का समापन हो रहा था तब यज्ञ की महिमा थी। यज्ञ द्वारा किये गए प्रयास से भगवान प्रसन्न हो जाते है। और व्यक्ति को उसके इक्षानुसार मनोरथ सिद्ध हो जाता था।

इस कलियुग में जब यज्ञ की महिमा न रही। तब भगवान ने मनुष्य को मन द्वारा भगवान को जपने का अस्वासन दिया। और मन द्वारा किये गए ध्यान को भगवान ने स्वीकार किया। इस कलियुग में श्री तुलसीदास ने अपनी विनय पत्रिका में भगवान को याद करने के लिए मंत्र की रचना की और इस मन को जो बाहरी दुनिया से आकर्षित है उस मन को भगवान के चरणों में लगाने के लिए रचना की है।

मंत्र अर्थ : हे मन ! कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर, वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं।
उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं ; मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं।।

उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है।
पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है, ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ।।

हे मन ! दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले।
आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर।।

जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर सुन्दर तिलक, और प्रत्येक अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं।
जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं; जो धनुष-बाण लिये हुए हैं; जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है।।

जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले है।
तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें।।

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामन्द्रजी) तुमको मिलेगा।
वह जो दया का खजाना और सर्वज्ञ है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है।।

इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय मे हर्षित हुईं।
तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं।।

गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता।
सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे।।

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