सिंहगढ़ का युद्ध

सिंहगढ़ का युद्ध
सिंहगढ़ का युद्ध

पुरंदर की संधि को आधार मानकर एक भरोसे के साथ जब छत्रपति शिवाजी महाराज आगरा पहुंचे, तो मुगलिया नसों में बह रही गद्दारी का परिचय देते हुए औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया। शिवाजी के साथ धोखा हुआ। हालांकि शिवाजी को मारने की पूरी तैयारी की गयी थी, लेकिन कहते हैं ना जाको राखे साईंयां, मार सके ना कोई। शिवाजी औरंगजेब के गढ़ से सकुशल बच निकले और उन्होंने वापस मराठा साम्राज्य में लौट कर पुरंदर की संधि को अस्वीकार कर दिया।

छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठा सैन्य क्षमताओं के अद्भुत प्रदर्शन और मराठा साम्राज्य के चौमुखी विकास की गाथा हम आपको बताते आ रहे हैं। अब तक आपने प्रतापगढ़, कोल्हापुर, पावनखिंड और पुरंदर की लड़ाई के बाद मराठा वीरता के आगे घुटने टेक रही मुगलिया बादशाहत को देखा। 1665 की पुरंदर की संधि में शिवाजी के साथ छल किया गया। किसी के वश में ना आने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज को संधि और मित्रता के नाम पर धोखा दे दिया गया। ‘कहानी भारत की’ के इस अंक में हम आपको बतायेंगे कि पुरंदर की संधि के बाद क्या कुछ हुआ और उसके बाद सिंहगढ़ का युद्ध कैसे हुआ।



1665 में हुई पुरंदर की संधि के तहत औरंगजेब ने मराठा साम्राज्य से कई किले वापस ले लिये। सिंहगढ़ का किला समेत 23 अन्य किले औरंगजेब ने अपने कब्जे में ले लिया। पुरंदर की संधि को आधार मानकर एक भरोसे के साथ जब छत्रपति शिवाजी महाराज आगरा पहुंचे, तो मुगलिया नसों में बह रही गद्दारी का परिचय देते हुए औरंगजेब ने उन्हें बंदी बना लिया। शिवाजी के साथ धोखा हुआ। हालांकि शिवाजी को मारने की पूरी तैयारी की गयी थी, लेकिन कहते हैं ना जाको राखे साईंयां, मार सके ना कोई। शिवाजी औरंगजेब के गढ़ से सकुशल बच निकले और उन्होंने वापस मराठा साम्राज्य में लौट कर पुरंदर की संधि को अस्वीकार कर दिया।



मराठा सैनिक अब मुगलिया गद्दारी का जवाब अपनी नंगी तलवारों से देना चाहते थे। औरंगजेब के हाथ पांव फूलने लगे थे, क्योंकि शिवाजी एक शेर थे और घायल शेर ज्यादा खतरनाक होता है। छत्रपति शिवाजी महाराज पुरंदर की संधि को सिरे से नकारने के बाद औरंगजेब से अपने सारे किले वापस लेना शुरू किया। मुगल हुकूमत की गर्दनें फिर से उड़ाई जाने लगी। एक-एक कर हिंदू स्वराज्य के सभी किलो पर भगवा लहराया जाने लगा। इन्हीं किलो में एक था कोंढाना का किला। कोंढाणा किला बनावटी संरचना के हिसाब से बहुत विशाल और बेहद सुरक्षित था। 750 मीटर ऊंची पहाड़ी पर स्थिति यह किला अपने चारों तरफ से ऊंची दीवारी से गिरा हुआ था। जिसको पार पाना किसी भी जीवित प्राणी के लिए असंभव था। कोंढाना का किला 70 हजार वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था। जिसका एक सिरा पुणे से तो दूसरा सिरा कल्याण से लगता था।



कहा जाता है कि कोंढाना को जिसने जीत लिया, समझो उसने पूना जीत लिया। इसलिए मराठा सैनिकों के लिए साम्राज्य विस्तार के रणनीतियों को बल देने के लिए कोंढाना को जीतना अतिआवश्यक था। शिवाजी ने आदेश दिया। उन्होंने अपने सबसे बहादुर और भरोसेमंद सिपाही और सेनापति तानाजी मालूसरे को बुलाया और उन्हें कोंढाणा जीतने के लिए सेना का नेतृत्व करने को कहा।



4 फरवरी 1670 वो तारीख है जब तानाजी के घर में बेटी की शादी हो रही थी, लेकिन तानाजी छत्रपति की आज्ञा को सिर माथे लगाते हुए शादी छोड़कर कोंढाणा को जीतने निकल पड़े। कोंडाना किले की रखवाली राजपूत राठौर उदयभाव सिंह कर रहे थे। किले की दीवार पर चढ़ने के लिए तानाजी ने रात का समय चुना और रस्सी के सहारे किले की दीवार पर चढ़ते हुए अंदर दाखिल हो गए। उदयभाव सिंह को इस बात की खबर लगी। उसके बाद तानाजी मालूसरे और उदय भाव सिंह के बीच घमासान हुआ। दोनों में जमकर लड़ाई हुई। उधर कुछ सैनिकों ने जाकर जिले का मुख्य दरवाजा खोल दिया। जहां से छत्रपति शिवाजी के अन्य मराठा सैनिक अंदर घुसकर मारकाट मचाने लगे। भीषण लड़ाई हुई और अंत में लड़ते-लड़ते किले तानाजी मालूसरे ने किले को तो जीत लिया, लेकिन खुद शहीद हो गये।

Published By
Prakash Chandra
17-03-2021

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