भारत की प्राचीन संस्कृति में क्षत्रिय गौरव का इतिहास बतौर मिशाल की तरह है । क्षत्रिय मतलब साधारणतः आज के राजपूत । राजपूतों के तलवार ने कई वीर कहानियाँ लिखी है । भारत को मुगलों और बाहरी आक्रांताओं से सुरक्षित रखा है और अपने आत्मगौरव की रक्षा करते हुए दुश्मनों के दाँत खट्टे किए हैं, वो भी एक बार नहीं, बल्कि अनेकों बार । आज उसी श्रेष्ठ भारत की गौरवमयी कहानियों में एक कहानी की बात करे जिसका नाम है रणथम्भौर । रणथम्भौर की घेराबंदी कर उसे लूट लेना भारत पर हमला करने हर लूटेरे का ख्वाब होता था जो अलाउद्दीन खिलजी के राज तक ख्वाब ही रहा ।
छल-कपट में माहिर खिलजियों ने किस तरह से बेईमानी की, युद्धनीति के खिलाफ षड्यंत्र किए और कैसे राजपुत फिर अपनों की ही गद्दारी के शिकार हुए, आज इसी के बारे में हम आपको बताने जा रहें हैं ।
मुख्य बिन्दु :
क्या है रणथम्भौर का इतिहास ?
रणथम्भौर राजस्थान का एक राज्य था। राजपूतों द्वारा शासित और संरक्षित इस राज्य की सीमाएं बुलंद दीवारों से सुरक्षित और ऊंची पहाड़ियों से अभेद्द थी । यहाँ के राजा हम्मीर चौहान अपने पिता जैत्र सिंह के तीसरे पुत्र थे । अपनी कार्यकुशलता और शानदार शासकिए गुणों की वजह से हम्मीर को उनके पिता जैत्र सिंह ने अपने जीते जी ही राजा बना दिया था । हम्मीर चौहान 1282 ई में रणथम्भौर के राजा बन चुके थे । गद्दी संभालने के बाद हम्मीर चौहान ने कोटियज्ञों का आयोजन किया था, जिससे उसकी कीर्ति चारो दिशाओं में फैल गयी थी । इसी बीच मेवाड़ के शासक समरसिंह को युद्ध में पराजित कर वो समूचे राजस्थान पर अपनी धाक जमा चुके थे ।
दिल्ली के खिलजी की टेढ़ी नजर -
दिल्ली में उन दिनों खिलजी वंश का शासन था । राजस्थान में रणथम्भौर की बढ़ती शक्तियाँ उसे बेचैन कर रही थी । राजस्थान दिल्ली से बेहद नजदीक भी था और व्यापारिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भी । लगातार बढ़ रही ख्याति में दुश्मनी की नींव रख दी । दिल्ली के तात्कालिक सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर हमला बोल दिया । 1290 ई और 1292 ई में दो बार पूरे सैन्य क्षमता के साथ जलालुद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर हमला किया लेकिन हम्मीर चौहान की बेहतरीन रणनीतियों की वजह से दुश्मन किले की दीवार तक ना छु सकें । जलाउद्दीन को मुंह की खानी पड़ी और यह कहते हुए वह लौट गया कि वह ऐसे किलों को कोई महत्व नहीं देता । जाहीर सी बात थी, अंगूर खट्टे लग रहें थें ।
अलाउद्दीन खिलजी के षड्यंत्र -
साल 1296 ई, जब अपने ही चाचा जलालुद्दीन को मारकर अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का शासक बना । अपने महत्वाकाक्षाओं को पूरा करने और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राजस्थान को अपने कब्जे में लेने के लिए अलाउद्दीन ने एक बार फिर रणथम्भौर पर अधिकार करना चाहा । इसी बीच सूचना आई की हम्मीर चौहान ने अलाउद्दीन खिलजी के दुश्मनों को शरण दी है । खिलजी ने उसे वापस मांगा तो हम्मीर चौहान ने मना कर दिया । उसके बाद सन् 1299 ई में अलाद्दीन ने उलुंग खाँ और नुसरत खाँ को रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए भेजा । खिलजी के दोनों सेनापतियों ने रणथम्भौर के बाहर कुछ इलाके पर कब्जा कर किले की घेराबंदी की । जवाब में हम्मीर ने अपने दो जांबाज भीम सिंह और धर्म सिंह को दुश्मनों का होश ठिकाने लगाने भेजा । युद्ध में उतरते ही दोनों ने खिलजी की सेना में राजपुती तलवार का रौद्र रूप दिखाया । खिलजी की सेना भाग खड़ी हुई । लेकिन दुर्भाग्य से जीत कर वापस लौटते वक़्त भीमसिंह पीछे छुट गए और दुश्मनों ने उन्हें अकेले में घेर कर मार दिया । हम्मीर चौहान को इस बात का बड़ा आघात पहुंचा और धर्मसिंह को इसका जिम्मेदार मानते हुए उसे अंधा कर देने का हुक्म दिया । उसका स्थान नए मंत्री के तौर पर भोजराज ने लिया ।
खिलजी अपनी लगातार हार से परेशान हो चुका था । उसे और कोई भी रास्ता नही सूझ रहा था जिससे वो रणथम्भौर पर अधिकार कर सके । अंततः उसने छल प्रपंच का सहारा लिया । मैत्री का हाथ बढ़ाया और धोखा किया । उसने हम्मीर की बेटी के साथ विवाह करने का भी प्रस्ताव भेजा । खिलजी द्वारा शादी के प्रस्ताव को हम्मीर चौहान ने सिरे से ठुकरा दिया और युद्ध चुना । भीषण संग्राम हुआ । खिलजी फिर हारने लगा । अपनी हार को सामने खड़ा देख उसने संधि प्रस्ताव भेजा । हम्मीर की तरफ से भी संधि प्रस्ताव पर बात करने के लिए रतिपाल और रणमल नामक दो सेनानायक गए । राज्यलोभ देकर खिलजी ने दोनों सेनानायकों को अपने साथ मिला लिया और रणथम्भौर के भोजनालय में जहर मिलवा दिया जिससे खाद्य सामग्रियाँ दूषित हो गयी ।
अब बाहर दुश्मन की सेना, अंदर खाने को दाना भी नहीं । प्रजा लड़े तो लड़े कैसे । कहा जाता है कि ऐसी नौबत आ गयी थी कि दो सोने के दाने के बदले एक चावल का दाना भी नसीब नहीं हो रहा था । आखिरकार हम्मीर चौहान को दुर्ग से बाहर निकलना पड़ा। जीत फिर भी आसान होती, मगर रतिपाल और रणमल के विश्वासघात के कारण खिलजी ने राजा हम्मीर चौहान को पराजित कर दिया । राजा वीरगति को प्राप्त हुए। रणथम्भौर की रानियों ने जौहर किया और इस तरह रणथम्भौर के किले पर खिलजी ने अधिकार किया ।
कहा जाता है कि राजा हम्मीर चौहान ने अपने पूरे जीवन काल में 17 लड़ाइयाँ लड़ी । जिसमें वो सिर्फ अपनी आखिरी लड़ाई हारें, वो भी अपनों के विश्वासघात की वजह से । राजपूत वीरता के स्वर्णिम इतिहास और भारत की गौरवमयी कहानियों में रणथम्भौर आज भी एक प्रमाण है भारतीय वीरता और भारत के युद्ध कौशल का ।
Published By
Prakash Chandra
25-01-2021
Frequently Asked Questions:-
1. रणथम्भौर का युद्ध कब हुआ था ?
1290 से 1301 ई.
2. रणथम्भौर का युद्ध किनके बीच हुआ था ?
हम्मीर चौहान और अल्लाउद्दीन खिलजी
3. रणथम्भौर के युद्ध का परिणाम ?
अलाऊद्दीन खिलजी की विजय