यह कहानी मेवाड़ के किले की एक ऐसे अभेद किले की, इस अभेद किले की दीवारों ने मेवाड़ को आततायीओ से मुक्त रखा जिस पर फ़तेह करना बहुत से वीरो को आसान ना था, मेवाड़ राज्य की राजधानी चित्तौरगढ़ थी, मेवाड़ राज्य आज राजस्थान के दक्षिण मध्य में स्थित है, जिसे आज के भारत में हम उदयपुर के नाम से जानते है |
मेवाड़ राज्य की नींव बप्पा रावल ने रखी थी जिन्होंने पहाड़ी इलाको में विस्तार किया और उस समय मेवाड़ की राजधानी नगदा थी आज उदयपुर से 19 किलोमीटर की दूरी पर है उन्होंने 734 ईस्वी में चित्तौड़ में मोरी के वंश मान सिंह को निकालने के बाद वहाँ अधिकार किया और उन्होंने रावल की उपाधि ग्रहण की इस बात पर भी मतभेद है मौर्य वंश के शाशक मान सिंह को युद्ध में हराने के बाद हासिल किया या उन्होंने उपहार स्वरुप बप्पा रावल को दिया इन सब के बाद आखिर बप्पा रावल का अधिकार गुजरात से लेकर अजमेर तक हो गया |
कुछ वर्षो तक राजपूतो के शाशन के पश्चात भारत के इतिहास में एक ऐसा मोड़ आया जिसने पूरे भारत को और मेवाड़ राज्य को संकट के द्वार पर ला रखा यह कहानी सन 1303 को मेवाड़ के राजा महारावल रतन सिंह और मुग़ल सल्तनत के अलाउद्दीन खिलजी के बीच शुरू होती है अल्लाउद्दीन खिलजी उस समय ऐसे किले की तलाश में था जो उसे सुरक्षा दे सके और जहां से वह अपनी रणनीतिक और राजनैतिक निर्णय ले सके उसके विपरीत यह कहानी भी है कि राजा महारावल रतन सिंह की रानी पदमावती इतनी सुन्दर थी की इतिहास इस बात की कल्पना नहीं कर सकता उसके बाद किसी दरबारी ने अल्लाउद्दीन खिलजी को उनसे विवाह की सूचना दी कि वो अगर राजा महारावल रतन सिंह को हरा दे तो वो रानी को हासिल कर सकता है जैसा की इन बातो से प्रभावित होकर उसने मेवाड़ पर आक्रमण किया और इस युद्ध में राजा रतन सिंह को हार का सामना करना पड़ा इसके पश्चात रानी पद्मावती और प्रमुख रानियाँ व मेवाड़ की स्त्रियों के साथ अग्नि को समर्पित हो गयी |
मेवाड़ ने वापिस सन 1326 में वापिस चित्तौरगढ़ में अपना वर्चस्व स्थापित किया राणा कुम्भा ने 1433 से 1468 किले की दीवारों को मजबूत किया और अपने शाशन में राज्य की सीमा विस्तार किया, महाराणा कुम्भा ने अपने पूर्वजो का बदला लिया और सन 1437 में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को सारंगपुर के पास बुरी तरह से परास्त किया और चित्तौड़ में उन्होंने इसके लिए विजय स्तम्भ का निर्माण कराया इसके बाद उन्होंने दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरात के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया | सन 1535 में मेवाड़ के किले में दूसरा हमला गुजरात के शाशक बहादुर शाह ने किया उस समय रानी कर्णावती ने हुमायु से सहायता मांगी उस समय तक हुमायु समय पर ना पहुंच सका जिसकी वजह से बहादुर शाह ने उस युद्ध को बड़ी ही आसानी से जीत लिया और युद्ध के फलस्वरूप राजा और उनके भाई उदय सिंह द्वितीय वहाँ से अपने प्राणो की रक्षा करते हुए निकले कहते है वहाँ 13000 स्त्रियों ने अपने प्राणो की आहुति दे दी |
यह बहादुर शाह के लिए थोड़े समय की जीत थी हुमायु के पहुंचते ही बहादुर शाह को किले से बाहर निकाल दिया और हुमांयू ने राणा विक्रमादित्य को मेवाड़ का राजा बनाया हुमायूँ ने सहायता रानी कर्णावती के राखी भेजने पर की थी राणा सांगा के दोनों पुत्र राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह को बचाने के लिए उन्हें बूंदी भेज दिया गया इसी इतिहास में पन्ना दाई का नाम विख्यात है जिसने सिसोदिया वंश को बचाने के लिए अपने पुत्र को राजविरोधियो को यह बताते हुए सौप दिया की यह मेरा पुत्र है और अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के दो टुकड़े होते हुए देखा |
मेवाड़ के सिसोदिया वंश के राजसिंहासन में महाराणा प्रताप का जन्म महाराणा उदय सिंह और रानी जयवंत कँवर के यहाँ 9 मई 1540 को मेवाड़ के कुम्भलगढ़ में हुआ मेवाड़ के किले पर अधिकार के लिए राजाओ की पेनी नज़र थी उन्ही में से एक नजर अकबर की थी जैसे जैसे दोनों बड़े हो रहे थे उनकी दुश्मनी की खाईया बढ़ती ही जा रही थी और इस बीच सन 1572 से 1573 तक अकबर ने महाराणा प्रताप को बिना युद्ध के समझौते के लिए एक एक करके जलाल खाँ प्रताप, फिर मान सिंह, भगवान दास और टोडरमल आये लेकिन इनके पास हतासा के सिवाय कुछ ना लगा और उन्हें वापिस जाना पड़ा महाराणा प्रताप को मुग़ल अधीनता कभी स्वीकार ना थी |
जिसका परिणाम हल्दीघाटी के युद्ध हुआ और अकबर का सामना भारत के एक वीर योद्धा महाराणा प्रताप से हुआ, हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 को सूर्योदय से तीन घंटे बाद शुरू होता है दोनों सेनाओ में महाराणा प्रताप ने सेना का नेतृत्व किया और अकबर की सेना से मान सिंह ने नेतृत्व किया महाराणा प्रताप की सेना में लगभग 3000 घुड़सवार और 400 भीलो की संख्या थी जिसकी कमान भील सेना के सरदार राणा पूंजा के पास थी जब की मान सिंह के पास लगभग 10000 सैन्य बल था और लगभग कुछ घंटो चले युद्ध के परिणाम में महाराणा प्रताप घायल हो चुके थे जिनमे महाराणा की सेना से 1600 लोग हताहत हुए जब की अकबर की सेना से लगभग 7000 लोग हताहत हुए |
इस युद्ध का परिणाम ना जीत का था ना हार का वही महाराणा इस युद्ध के पश्चात जंगल में चले गए और अकबर का सपना मेवाड़ के रास्ते गुजरात में संपर्क करना आसान हो गया महाराणा प्रताप ने अपना शरीर 19 जनवरी 1597 को मेवाड़ में ही मुक्त किया |
अकबर उस समय लाहौर में था उसके दरबारी दुरसा आढ़ा ने अकबर की दशा को कुछ इस तरह व्यक्त किया है,
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी |
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी ||
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली |
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली ||
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी |
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी ||
मेवाड़ के किले ने इतिहास के पन्नो में सुनहरे अक्षरों में अपनी जगह बनायीं और यहाँ के राणाओ की अपराजिता ने इसे बहुमूल्य विजय हासिल कराई |