प्रातः काल के नियम

प्रातः काल के नियम
प्रातः काल के नियम

हमारे पूर्वजों ने हमें एक ऐसी वैदिक परंपरा से बांध करके रखा हुआ है। जिसकी कल्पना अतुलनीय है, हमारे पूर्वजों ने भारत के वैदिक ऋषि मुनियों ने प्रातः काल में जागने के समय से लेकर के रात्रि के सोने के समय तक में प्रकृति का आदर करना सिखाया, और मानव शरीर में ही ईश्वर का स्मरण करना।

हमारे पूर्वजों ने इस मानव शरीर को ईश्वर माना, पृथ्वी को मां, सूर्य देव को आराध्य, और चंद्रमा को मामा। शायद अपने पूर्वजों को याद करके देखें तो हमें हर पल संयम में रहना सिखाते हैं, उन्होंने हमें बताया किस प्रकार पृथ्वी में संयम है, किस प्रकार आकाश में संयम है, और किस प्रकार वायु में संयम है।  जानते हैं इन मंत्रों का अर्थ यह मंत्र हमें प्रातः काल से रात्रि तक के समय को किस तरह सम्मान करना सिखाते हैं। 



प्रातः काल में हमारे जगने के समय में हमें सर्वप्रथम अपने हाथों को प्रणाम करना चाहिए। हमारे हाथ के अगले भाग में माता लक्ष्मी का वास है, हमारे हाथों के मध्य भाग में देवी सरस्वती का वास है, और हमारे हाथों के मूल में भगवान गोविंद अर्थात विष्णु का वास है। मैं मानव शरीर प्रातः काल देवी-देवताओं का स्मरण करके अपने हाथों का दर्शन करता हूं, और आप सभी को नमन करता हूं। यह मंत्र तो हमें भगवान का स्मरण करना सिखाता है, इस पूरे दिनचर्या में जो भी हमारे कार्य घटित हो भगवान के द्वारा कार्य हो।



कराग्रे वसते लक्ष्मीः, करमध्ये सरस्वती |

करमूले तू गोविंदा, प्रभाते करदर्शनम् ||



प्रातः काल में जगने के और अपने हाथों को प्रणाम करने के पश्चात हम पृथ्वी मां का स्मरण करते हैं, जिस प्रकार एक दूध पीता हुआ बच्चा अपनी माता को याद करता है। उसी प्रकार से इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य पृथ्वी का पुत्र या पुत्री है। जिस प्रकार एक मां अपने पत्र की भूख शांत करने के लिए अपना दूध पिलाती है, और उसे सही आचरण करना सिखाती है। उसी प्रकार से पृथ्वी माँ अपने भक्तों को संयम और सदाचार सिखाती है आईए एस मंत्र के माध्यम से अपनी माता को प्रणाम करते हैं। 



समुद्र-वसने देवि, पर्वत-स्तन-मण्डले |

विष्णु-पत्नि नमस्तुभ्यं, पाद-स्पर्शं क्षमस्वमेव ||



हे पृथ्वी माँ ! जिस प्रकार आप ने समुद्र को अपने वस्त्र के रूप में ओढ़ रखा है, जिस प्रकार एक माता के स्तनों से दूध की वर्षा होती है, उसी प्रकार से नदियाँ दूध के रूप में पर्वतों से निकलती है, आप नदियों से निकलने वाले जल से प्रत्येक मनुष्य की क्षुधा निर्वत्ति करती है। आप जगत जननी धन्य है। आप जगत पालक विष्णु की पत्नी है।  हे माँ ! मैं आप पर अपने पैर रखने से पूर्व आपका क्षमा प्रार्थी हूं कृपया मेरे द्वारा किये गए इस दुष्टता को क्षमा प्रदान करें। 



या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।



गीता के दूसरे अध्याय के 69 श्लोक में रात्रि का वर्णन किया गया है। कि किस प्रकार हमारी रात्रि होनी चाहिए, हमें रात्रि में संयम से विश्राम करना चाहिए। और रात्रि को प्रणाम करना चाहिए। 

इस जगत के सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में स्थितप्रज्ञ योगी जागता है। और जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में इस जगत के प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि के समान है।

अर्थात हमें रात्रि में विश्राम करते समय भी अपने परमात्मा का स्मरण विश्मरण न हो यही प्रकृति का नियम है यही इस चराचर भौतिक जगत के नियम है जिनका हमें पालन करना चाहिए।

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