क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) में चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, और 15 अन्य देशों की मान्यता पर हस्ताक्षर किया गया। इसका एक व्यापक व्यापारिक ब्लॉक के रूप में अस्तित्व है। 2013 में आए हुए इसे व्यापारीक समझौते को काफी बड़ी रुप में मान्यता मिली है। यहां हस्ताक्षर किए हुए देशों के बीच में मुक्त व्यापार समझौता किया गया था।
RCEP का गठन इस उद्देश्य से किया गया था कि जो देश इस साझेदारी के सदस्य है, उन देशों के उत्पादों और सेवाओं को आसान किया जा सके। 2013 से जब इस व्यवसायिक साझेदारी की बात चल रही थी, उसी समय से भारत ने इस साझेदारी में काफी बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परंतु नवंबर 2019 में भारत ने यह फैसला लिया कि वह इस हस्ताक्षरकर्ता से बाहर आना चाहता है। भारत ने इस फैसले का यह कारण दर्शाया की RCEP में अपर्याप्त सुरक्षा उपाय है और कम सीमा शुल्क, जिसकी वजह से भारत के कृषि और डेयरी क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
RCEP से भारत की वापसी के कारण-
- भारत के साथ दक्षिण कोरिया, जापान और अन्य एशियन देशों का मुक्त व्यापार समझौता बढ़ा था। पर इसके बावजूद भी भारत का व्यापार प्रतिकूल संतुलन से जूझ रहा था, क्योंकि भारत से निर्यात की तुलना में आयात तेजी से बढ़ गया था। यहां तक कि नीति आयोग द्वारा प्रकाशित एक पत्र में यह भी दर्शाया गया कि RCEP के अंतर्गत देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार में भारत का घाटा ही हुआ है।
- RCEP त्यागने कि फैसले में चीन का भी एक कोण मौजूद है। भारत में मुक्त व्यापार हेतु RCEP के अंतर्गत सारे देशों के साथ हस्ताक्षर किए थे, पर यह हस्ताक्षर चीन के साथ ना हो पाया। कई आर्थिक पत्रों के द्वारा यह भी सामने आया है कि चीन के साथ भारत का व्यापारिक घाटा रहा। यहां व्यापारिक घाटे का सर्वोत्तम कारण यह माना गया कि चीन में बनाई हुई सस्ती उत्पादों ने भारतीय बाजारों पर कब्जा कर लिया।
- एक कारण यह भी सामने आया है कि, ऑटो ट्रिगर तंत्र ने भारत को ऐसे उत्पादों पर शुल्क बढ़ाने की अनुमति दी होगी जहां आयत की सीमा, निर्धारित सीमा से ज्यादा थी। भारत के अर्थनीतिक उसूलों के अनुसार ऐसी परिस्थितियां देश के घरेलू उद्योगों को असुरक्षित करती है। घरेलू उद्योगों के संरक्षण हेतु भारत की RCEP से वापसी जरूरी थी।
RCEP से वापसी में भारत की निहितार्थ-